Natasha

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राजा की रानी

मेरे चचा साहब एक बार दो मारवाड़ी महिलाओं के नाम नालिश करने गये थे। उन लोगों ने रेलगाड़ी में मौका पाते ही चचा साहब के नाक-कान की प्रबल पराक्रम के साथ मलाई कर दी थी। सुनकर मेरी चाची अफसोस करके बोली थीं, “अच्छा होता यदि अपने बंगालियों में घर-घर इस बात का चलन होता!” होता तो मेरे चाचा साहब उसका घोरतर विरोध करते। परन्तु, इससे नारी-जाति की हीन अवस्था का प्रति-विधान हो जाता, सो निस्सन्देह नहीं कहा जा सकता। मैं आज सुनन्दा के भग्न-गृह के छिन्न आसन पर बैठा हुआ चुपचाप और निस्सन्देह रूप से अनुभव कर रहा था कि यह कहाँ और क्यों कर हो सकता है। सिर्फ एक 'आइए' कहकर अभ्यर्थना करने के सिवा उसने मेरे साथ दूसरी कोई बातचीत ही नहीं की, और राजलक्ष्मी के साथ भी ऐसी किसी बड़ी बात की चर्चा में वह लग गयी हो, सो भी नहीं; परन्तु, उसने जो अजय के मिथ्याडम्बर के उत्तर में हँसते हुए जता दिया कि इस घर में पान नहीं है और खरीदने का सामर्थ्य भी नहीं-यही वह दुर्लभ वस्तु है। उसकी सब बातों के बीच में यह बात मानो मेरे कानों में गूँज ही रही थी। उसके संकोच-लेश-शून्य इतने से परिहास से दरिद्रता की सम्पूर्ण लज्जा ने मारे शरम के न जाने कहाँ जाकर मुँह छिपा लिया, फिर उसके दर्शन ही नहीं मिले। एक ही क्षण में मालूम हो गया कि इस टूटे-फूटे मकान, फटे-पुराने कपड़ों, टूटी-फूटी घर की चीजों और घर के दु:ख-दैन्य-अभावों के बीच इस निराभरण महिला का स्थान बहुत ऊँचा है। अध्याजपक पिता ने देने के नाम यही दिया कि अपनी कन्या को बहुत ही जतन के साथ धर्म और विद्या दान करके उसे श्वसुर-कुल में भेज दिया; उसके बाद वह जूते-मोजे पहनेगी या घूँघट हटाकर सड़कों पर घूमेगी, अथवा अन्याय का प्रतिवाद करने के लिए पति-पुत्र को लेकर खण्डहर घर में रहेगी और वहाँ मूड़ी भूनेगी या योगवासिष्ठ पढ़ाएगी, इस बात की चिन्ता उसके लिए बिल्कु्ल ही सारहीन थी। महिलाओं को हमने हीन बनाया है या नहीं, यह बहस फिजूल की है, परन्तु इस दिशा में अगर हम उन्हें वंचित रखते हैं तो उस कर्म का फल भोगना अनिवार्य है।

अजय अगर 'उत्पत्ति-प्रकरण' की बात न कहता तो सुनन्दा की शिक्षा के विषय में हम कुछ जान भी न सकते। उसके मूड़ी भूनने से लेकर सरल और मामूली हँसी-मजाक तक किसी भी बात में 'योगवासिष्ठ' की तेजी ने उझकाई तक नहीं मारी। और साथ ही, पति की अनुपस्थिति में अपरिचित अतिथि की अभ्यर्थना करने में भी उसे कहीं से कुछ बाधा नहीं मालूम हुई। निर्जन घर में एक सत्रह-अठारह वर्ष के लड़के की इतने सहज-स्वभाव और असानी से वह माँ हो गयी है कि शासन और संशय की रस्सी-अस्सी से उसे बाँध रखने की कल्पना तक उसके पति के दिमाग में कभी नहीं आई। हालाँकि कि इसी का पहरा देने के लिए घर-घर न जाने कितने पहरेदारों की सृष्टि होती रहती है!

तर्कालंकार महाशय लड़के को साथ लेकर पेंठ करने गये थे। उनसे मिलकर जाने की इच्छा थी, मगर इधर अबेर हुई जा रही रही थी। इस गरीग गृहलक्ष्मी का न जाने कितना काम पड़ा होगा, यह जानकर राजलक्ष्मी उठ खड़ी हुई, और विदा लेकर बोली, “आज जा रही हूँ, अगर नाखुश न होओ तो फिर आऊँगी।”

मैं भी उठ खड़ा हुआ, बोला, “मुझे भी बात करने के लिए कोई आदमी नहीं, अगर अभय-दान दें तो कभी-कभी चला आया करूँ।”

सुनन्दा ने मुँह से कुछ नहीं कहा, पर हँसते हुए गरदन हिला दी। रास्ते में आते-आते राजलक्ष्मी ने कहा, “बड़े मजे की स्त्री है। जैसा पति वैसी ही पत्नी। भगवान ने इन्हें खूब मिलाया है।”

मैंने कहा, “हाँ।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “इनके उस घर की बात आज नहीं छेड़ी। कुशारी महाशय को अब तक अच्छी तरह पहिचान न सकी, पर ये दोनों देवरानी-जिठानी बड़ी मजे की हैं।”

मैंने कहा, “बात तो ऐसी ही है। मगर तुममें तो आदमी को वश करने की अद्भुत शक्ति है, देखो न कोशिश करके अगर इनमें मेल करा सको।”

राजलक्ष्मी ने जरा दबी हँसी हँसकर कहा, “शक्ति हो सकती है, पर तुम्हें वश कर लेना उसका सुबूत नहीं। कोशिश करने पर वह तो और भी बहुतेरी कर सकती हैं।”

मैंने कहा, “हो भी सकता है। मगर, जब कि कोशिश का मौका ही नहीं आया, तो बहस करने से भी कुछ हाथ न आएगा।”

राजलक्ष्मी ने उसी तरह मुसकराते हुए कहा, “अच्छा जी, अच्छा। यह मत समझ लो कि दिन बीत ही चुके हैं।”

आज दिन-भर से न जाने कैसी बदली-सी छाई हुई थी। दोपहर का सूर्य असमय में ही एक काले बादल में छिप जाने से सामने का आकाश रंगीन हो उठा था। उसी की गुलाबी छाया ने सामने के कठोर धूसर मैदान और उसके एक किनारे के बाँसों के झाड़ और दो-तीन इमली के पेड़ों पर सोने का पानी फेर दिया था। राजलक्ष्मी के अन्तिम आरोप का मैंने कोई जवाब नहीं दिया, परन्तु भीतर का मन मानो बाहर की दस दिशाओं के समान ही रंगीन हो उठा। मैंने कनखियों से उसके मुँह की ओर ताककर देखा कि उसके ओठों पर की हँसी अब तक पूरी तौर से बिलाई नहीं है। विगलित स्वर्ण-प्रभा में वह अतिशय परिचित मुख बहुत ही अपूर्व मालूम पड़ा। हो सकता है कि वह सिर्फ आकाश ही का रंग न हो; हो सकता है कि जो प्रकाश मैं और एक नारी के पास से अभी-अभी हाल ही चुरा लाया हूँ, उसी की अपूर्व दीप्ति इसके भी हृदय में खेलती फिर रही हो। रास्ते में हम दोनों के सिवा और कोई नहीं था। उसने सामने की ओर अंगुली दिखाते हुए कहा, “तुम्हारी छाया क्यों नहीं पड़ती, बताओ तो?” मैंने गौर से देखा कि पास ही दाहिनी ओर हम दोनों की अस्पष्ट छाया एक होकर मिल गयी है। मैंने कहा, “चीज होती है तो छाया पड़ती है- शायद अब वह नहीं है।”

“पहले थी?”

“ध्याहन से नहीं देखा, कुछ याद नहीं पड़ता।”

राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, “मुझे याद पड़ता है-नहीं थी। थोड़ी उमर से ही उसे देखना सीख गयी थी।” यह कहते हुए उसने परितृप्ति की साँस लेकर फिर कहा, “आज का दिन मुझे बहुत ही अच्छा लगा है। मालूम होता है इतने दिनों बाद मुझे एक साथी मिला है।” यह कहकर उसने मेरी ओर देखा। मैंने कुछ कहा नहीं, पर मन-ही-मन यह निश्चित समझ लिया कि उसने बिल्कुषल सच कहा है।

घर जा पहुँचा। पर पैर धोने की छुट्टी न मिली। शान्ति और तृप्ति दोनों ही एक साथ गायब हो गयी। देखा कि बाहर का ऑंगन आदमियों से भरा हुआ है; दस-पन्द्रह आदमी बैठे हैं जो हमें देखते ही उठ खड़े हुए। रतन शायद अब तक व्याख्यान झाड़ रहा था, उसका चेहरा उत्तेजना और निगूढ़ आनन्द से चमक रहा था। वह पास आकर बोला, “माँजी, मैं बार-बार जो कहता था, वही बात हुई।”

राजलक्ष्मी ने अधीर भाव से कहा, “क्या कहता था मुझे याद नहीं, फिर से बता।”

रतन ने कहा, “नवीन को थाने के लोग हथकड़ी डालकर कमर बाँध के ले गये हैं।”

“बाँध के ले गये हैं? क्या किया था उसने?”

“मालती को एकदम मार डाला है।”

“कह क्या रहा है तू?”

राजलक्ष्मी का चेहरा एकबारगी फक पड़ गया।

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